Monday, August 27, 2012

मुझे अपना सपना जीने दें-अनुराग कश्यप


क्रांतिकारी अनुराग कश्यप ने क्या इंडस्ट्री के प्रचलित नियमों और स्टार परंपरा के सामने घुटने टेक दिए हैं? यह जानने के लिए रघुवेन्द्र सिंह ने इस फिल्मकार से विशेष भेंट की

अनुराग कश्यप का बिना लाग-लपेट के बेधडक़ एवं निर्भीक होकर अपना स्वतंत्र मत रखना अच्छा लगता है, इसीलिए हमें उनसे बातें करने में बहुत मजा आता है. अनुराग आज अपने आप में एक इंडस्ट्री हैं. इस इंडस्ट्री से निकलने वाली फिल्मों का स्टार कोई खान, रोशन, कुमार या कपूर नहीं होता, बल्कि फिल्म का धांसू विषय होता है. मगर जब अनुराग कश्यप ने अपने बैनर (एकेएफपीएल) की सबसे महंगी फिल्म बॉम्बे वैलवेट की घोषणा रणबीर कपूर के साथ की, तो लोग चकित रह गए. लोगों ने कहना आरंभ कर दिया कि कल तक स्टार सिस्टम की आलोचना करने वाले अनुराग कश्यप अब उनके समक्ष नतमस्तक हो गए हैं. आजकल अनुराग के शब्दों की धार भी थोड़ी कुंद हो गई  है. तो क्या मान लिया जाए कि गैर फिल्मी पृष्ठभूमि का यह क्रांतिकारी फिल्मकार और उसका सिनेमा अब बदल रहा है? इसका जवाब तो वे खुद देंगे, मगर हम उनका स्लिम अवतार देखकर समझ गए कि शारीरिक तौर पर वह बदल रहे हैं. मैंने 7 किग्रा वजन कम किया है. अब मैं 90 किग्रा का हूं. अनुराग ने अपने चिर-परिचित अंदाज में हंसते हुए बताया. प्रस्तुत है, अभी-अभी 65वें कान फिल्म समारोह से लौटे अनुराग कश्यप से बातचीत के खास अंश. 

विदेश में आपको हिंदी सिनेमा का चेहरा माना जा रहा है. क्या इससे फिल्मकार के तौर पर आप अधिक जिम्मेदार महसूस कर रहे हैं?
इंटरनेशनली चेहरा बनने का मतलब यह हो गया है कि अब मैं पिक्चरें बनाता रहूंगा, जो मैं बतौर प्रोड्यूसर और डायरेक्टर बनाना चाहता हूं और अब मुझे एक ऐसी ताकत मिल गई है कि अगर कोई इनसिक्योरिटी में आकर कहता है कि ये पिक्चर मत बनाओ, तो मैं उन्हें कह सकता हूं कि मैं खुद बना लूंगा. अब मुझे अपने आप को बदलने की जरूरत नहीं है. ये मेरी बहुत बड़ी जीत है. सालों से मेरी जद्दोजहद रही है कि  कैसी फिल्म बनाऊं. इंडिया में लोग कहते हैं कि मैं यूरोपियन फिल्में बनाता हूं और बाहर जाता हूं तो लोग बोलते हैं कि बॉलीवुड फिल्म है, क्योंकि उसमें गाने होते हैं. बहुत सालों तक मैं यह नहीं समझ पा रहा था कि मैं हूं कहां? मैंने अपनी ऑडियंस ढूंढनी शुरू की. मैंने पाया कि इंडियन ऑडियंस मेरी फिल्मों को लेकर कंजर्वेटिव है, तो मुझे नॉन-इंडियन ऑडियंस ढूंढनी थी. उन तक पहुंचने का रास्ता फेस्टिवल है. हमारे लिए अब बहुत बड़ा मार्केट खुल गया है. अब छोटी फिल्मों की फंडिंग विदेश से रही है. रिस्की फिल्में बनाने के लिए अब हम इंडियन मार्केट के जवाबदेह नहीं है. 

ऐसा समझा जाता है कि कान में बड़ी गंभीर फिल्में दिखाई जाती हैं, जो आम दर्शकों की समझ से परे होती हैं.
वो गलतफहमी हैं. फेस्टिवल की अधिकतर फिल्में वैसी होती हैं, लेकिन जब फेस्टिवल में कोई कमर्शियल पिक्चर आती है, तो बहुत बड़े लेवल पर जाती है. दैट गर्ल इन यलो बूट्स फेस्टिवल फिल्म है, लेकिन गैंग्स ऑफ वासेपुर वैसी नहीं है. इंडियन सिनेमा को लेकर उनकी सबसे बड़ा दिक्कत यह है कि इंडियन फिल्मों में इंडिया दिखता ही नहीं है. दूसरा, इंडियन डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम ऐसा है कि कई पिक्चरें ऐसी थीं, जो कान में जा सकती थीं, लेकिन नहीं गईं क्योंकि वो यहां रिलीज हो चुकी थीं. उनकी पसंदीदा फिल्मों में सत्या और कंपनी थीं. रामगोपाल वर्मा को वेस्ट में हर कोई जानता है. इंडिया में ये बात कोई नहीं जानता है. हर फिल्म फेस्टिवल के हेड को मालूम है कि इंडिया में एक फिल्म बनी थी- कपंनी, जो राम गोपाल वर्मा ने बनाई थी


रामगोपाल वर्मा को आप लंबे समय से जानते हैं. उनके बारे में आजकल चर्चा हो रही है कि वे अपने ट्रैक से मिस हो गए हैं?
मैं भी कहूंगा कि रामू ट्रैक से मिस हो गए हैं. उन्होंने सुनना बंद कर दिया है. चीजें जितना ज्यादा वर्क नहीं कर रही हैं, वो जिद्दी होते जा रहे हैं. उतना ज्यादा प्वाइंट प्रूव करने के चक्कर में क्लोज्ड होते जा रहे हैं. कोई उन्हें कुछ कहता है, वो सुनते नहीं हैं. जिस आदमी को मैंने पूजा है, अपना हीरो माना है, सब सीखा है, मैं उसे गिरते हुए नहीं देख सकता. लेकिन मैं कुछ कर भी नहीं सकता, क्योंकि वो ऐसा नहीं चाहेंगे.

इस साल चार फिल्में (गैंग्स ऑफ वासेपुर-1 एवं 2, पेडलर्स और मिस लवली) कान में गईं, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री इस ओर उदासीन रही. 
मुझे तो आदत है लोगों की सराहना मिलने की. मैं हमेशा बोलता हूं कि मुझे इंडस्ट्री ने सपोर्ट नहीं किया है. मुझे हमेशा डायरेक्टर कम्यूनिटी का सपोर्ट मिला है. मुझे करण जौहर, जोया अख्तर और दिबाकर बनर्जी का मैसेज आया. आमिर खान ने बाकायदा फोन करके कहा कि कान में जाकर हंगामा करना. झंडा फहरा कर आना.

अगर इन्हीं लोगों ने पब्लिक प्लेटफार्म पर अपनी खुशी व्यक्त की होती, तो बात कुछ और होती...
यार, ये दो धारी तलवार है. वो जिस सिनेमा में बिलीव करते हैं, मैं उसमें विश्वास नहीं करता. मैं जो सिनेमा करता हूं, उसमें वो बिलीव नहीं करते. मैंने भी तो कभी अपनी खुशी ट्विटर या फेसबुक पर नहीं दिखाई, जब किसी फिल्म ने 100 करोड़ का बिजनेस किया. फिर मैं उनसे ऐसी उम्मीद कैसे कर सकता हूं.

आप 3 साल से कान में जा रहे हैं. भारतीय सिनेमा को लेकर फेस्टिवल बिरादरी में लोगों की सोच बदल रही है?
हां और इसका श्रेय जाता है एनएफडीसी को. एनएफडीसी ने कान में फिल्म बाजार शुरू किया था, जिसमें बाहर से लोगों ने आना शुरू किया और नए लोगों से मिलना-जुलना शुरू किया. तब लोगों को एहसास हुआ कि इंडिया में ऐसा एक सिनेमा बन तो रहा है, लेकिन उसे प्लेटफार्म नहीं मिल रहा है. तो लोग उस इंटीपेंडेट सिनेमा को ढूंढने मुंबई आने लगे. फेस्टिवल का क्राइटेरिया क्या है कि वहां फिल्म प्रीमियर होनी चाहिए, ताकि लोग बोलें कि हमारे यहां पिक्चर का प्रीमियर हुआ. उनका भी अपना एक इगो है.

कई बार आपको मंजिल तक जाने का रास्ता नहीं पता होता, तो क्या फिल्मकारों को कान जैसे फेस्टिवल्स में जाने का रास्ता नहीं मालूम था या उस स्तर का सिनेमा बन ही नहीं रहा था?
आदमी रास्ता तब ढूंढता है, जब उसको कोई रास्ता सूझता नहीं है. वो रास्ता मैंने इसलिए ढूंढा क्योंकि मुझे इंडिया में कोई रास्ता मिल नहीं रहा था. बाकी लोगों को रास्ता ढूंढने की जरूरत नहीं है. इंडस्ट्री के लोग यहां के सिस्टम में हैं, फिल्में बनती हैं और रिलीज हो जाती हैं. सब पैसे कमाते हैं और अगली शुरू हो जाती है. मेरी फिल्में रिलीज नहीं होती थीं, बैन हो जाती थीं, तो मैंने रास्ता ढूंढा, छत्रपति शिवाजी मेरा गेटवे बन गया. मैं बाहर जाने लगा. और जब मैंने रास्ता ढूंढा तो गलतियां भी करता रहा. जब गुलाल और देव डी एक साथ वेनिस फिल्म फेस्टिवल में गईं, तो दोनों आउट ऑफ कॉम्पिटिशन दिखाई गईं. तब हमें महसूस हुआ कि वह दोनों यहां रिलीज हो चुकी थीं, इसलिए ऐसा हुआ. जब ब्लैक फ्राइडे आई, तो कान वालों ने बोला कि ये पिक्चर हमें क्यों नहीं भेजी? हमने कहा कि भेजी थी, उन्होंने कहा कि नहीं मिली. फिर पता चला कि आप फिल्म भेजते हो, तो वो कहीं खो भी जाती है. अगर आप फिल्म भेज रहे हो, तो तय करो कि वहां पहुंच चुकी है. उन्हें सूचित करना पड़ता है कि हमने ये पिक्चर भेजी है, इसे प्लीज देखिए. वो जब तक फिल्म देख लें, तब तक हैरान कर देते हैं हम. दैट गर्ल.. से हमारे लिए एक नया रास्ता खुला.

गैंग्स ऑफ वासेपुर आपकी पिछली सभी फिल्मों से अलग है.
वासेपुर को परिभाषित करना बहुत मुश्किल है. मेरी पहली फिल्मों की तुलना में यह मेरा सबसे कमर्शियल सिनेमा हैं. साथ ही यह एक एक्सपेरिमेंट भी है. यह एक ऐसी फिल्म है, जो जगह और जमीन से जुड़ी हुई है. उसको कहने का फार्म ऐसा है कि जो आदमी को आसानी से हजम हो जाए. इसमें एक भी ऐसा तत्व नहीं है, जिनसे आप परिचित नहीं हैं. अगर ये चीज वर्क करती है तो यह मेन स्ट्रीम सिनेमा को रिडिफाइन करेगी. और अगर नहीं चलती है, तो मुझे रिडिफाइन करती है. इसमें एक भी हीरो नहीं है. सारे गाने इतने ज्यादा अफलातून हैं कि आदमी जोड़ ही नहीं पाता. ये फिल्म इंडिया की छवि भी है.

गैंग्स ऑफ वासेपुर के बाद आपकी अगली बड़ी फिल्म बॉम्बे वैलवेट भी अतीत में लौटने की कहानी है. अतीत में बार-बार लौटने की कोई खास वजह?
क्योंकि इतिहास में सबसे अच्छी कहानियां दबी पड़ी हैं. मेरी जिज्ञासा है मुझे लेकर जाती है अतीत में. उसकी वजह से मुझे सबका कच्चा-चिट्ठा पता है. सबके बारे में मुझे सब कुछ पता है इस इंडस्ट्री में. कौन क्या है? कैसे है?

स्टार और आप, नदी के दो किनारे समझे जाते थे, मगर आपने बॉम्बे वैलवेट में रणबीर कपूर को साइन किया. लोगों यह पूछ रहे हैं कि अब आप स्टार्स के पीछे भाग रहे हैं?
रणबीर को मैंने वेकअप सिड में पहली बार देखा था, तबसे उसकी ओर आकर्षित था. रॉकेट सिंह देखने के बाद मैंने रात को इमोशनल होकर उसे मैसेज भेजा कि तुम्हारे साथ काम करना चाहता हूं. जिस दिन मुझे आयडिया मिल गया, आऊंगा. मैं एक्टर के पीछे गया हूं. किस्मत मेरी है कि वह एक्टर बहुत बड़ा स्टार है. मैं बोलता हूं कि शाहरुख खान, आमिर खान, अजय देवगन और ऋतिक रोशन, ये चार ऐसे स्टार हैं, जिनके साथ मैं काम करुंगा. इन सभी के पास कम से कम मैं 2 स्क्रिप्ट लेकर जा चुका हूं. जिस दिन हमें कॉमन ग्राउंड मिल गया, हम जरूर साथ काम करेंगे. दुर्भागयवश, हम उस इंडस्ट्री में रहते हैं, जहां जब आयडिया बड़ा होता है, तो स्टार बड़ा होना चाहिए. हॉलीवुड में जब टाइटैनिक या स्पायडरमैन बनती है, तो उसमें कोई उभरता सितारा होता है. हमारे यहां मार्केट स्टार पर पैसे लगाता है, आयडिया पर नहीं. मुझे बॉम्बे वैलवेट और डोंगा बनानी है. अगर मेरे दर्शक समझते हैं कि मैं बिक गया हूं, तो मैं पूरी जिंदगी अपना सपना नहीं जी पाऊंगा. अगर ऑडियंस का सपना यह है कि अनुराग कभी बड़े स्टार के साथ फिल्म बनाएं, नए लोगों के साथ बनाते रहें, तो वे खुद अनुराग या जो बनना है, बन जाएं. शुरू से मेरी स्ट्रगल खुद की रही है. मैं अपने सपने जीने यहां आया हूं. अगर दुनिया ने उसे मूवमेंट बना दिया है और मुझे उसका अग्रणी बना दिया है, तो ये दुनिया की समस्या है. मैं अपने लिए लड़ा हूं और उस सिनेमा के लिए लड़ा हूं, जिसमें विश्वास किया है.

वासेपुर की झलक देखने के बाद साफ नजर रहा है कि आपका सिनेमा बदल रहा है. अब आप किसी मुद्दे पर बोलते हैं, तो आपके शब्दों में भी वह धार नहीं होती. तो क्या माना जाए कि आप और आपका सिनेमा बदल रहा है?
मैं थोड़ा बड़ा हो गया हूं. मैं बोलता तो आज भी साफ हूं, लेकिन कई जगह नहीं बोलता हूं. पहले जब मैं ब्लॉग पर लिखता था, तब मैं अनरिलिज्ड फिल्ममेकर होता था. मेरे अंदर गुस्सा भरा पड़ा था. अभी मैंने उस गुस्से को चैनलाइज कर लिया है. उसमें बहुत बड़ा योगदान मेरी पत्नी कल्कि (कोचलिन) और भाई अभिनव (कश्यप) का है. पहले गुस्सा आता था, तो तुरंत लिखने बैठ जाता था, लेकिन अब उसे पास ऑन होने देता हूं. फिर लिखने बैठता हूं. लेकिन मुझे अब भी हिपोक्रेसी (बनावटी पन) बर्दाश्त नहीं होती.

करण जौहर और आप सिनेमा के दो अलग-अलग केंद्र हैं. आजकल उनकी गिनती भी आपके दोस्तों में होती है.
जो आदमी खुद पर हंस सकता है, वह बहुत बड़ा होता है. करण खुद पर चौबीस घंटे हंसता रहता है. पहले मुझे नहीं पता था कि करण ऐसा आदमी है. वो आदमी जैसा पर्सनल लाइफ में है, पता नहीं क्यों उसकी फिल्म में वह नहीं नजर आता. उसका सेंस ऑफ ह्यूमर अलग है. वह अगला वूडी ऐलेन हो सकता है, अगर वह कोशिश करें तो. वह अपनी सेक्सुऐलिटी तक का मजाक उड़ाता है. अपने चालीस साल को वह आदमी जैसे सेलीब्रेट करता है, वह आदमी बहुत कमाल है. नए फिल्ममेकर्स को जिस तरीके से सपोर्ट करता है, वह अच्छा लगता है. करण को लेकर मेरी धारणा काफी बदली है


आज आप एक ब्रांड बन चुके हैं. मगर इंडस्ट्री वालों से दोस्ती और कमर्शियल सिनेमा का निर्माण क्या अगले पड़ाव पर जाने की तैयारी है?
यार, मेरी कोई रणनीति या योजना नहीं है. मेरा सारा स्ट्रगल खुद के सिनेमा के सर्ववाइवल के लिए रहा है. मेरे अलावा सारे बाजार को मालूम है कि मैं एक ब्रांड बन गया हूं. ब्रांड बनने का मतलब क्या है? अगर ब्रांड बनने का मतलब यह है कि मुझसे लोग एक खास तरह के सिनेमा की उम्मीद करते हैं, तो वह ब्रांड बहुत सीमित है. मुझे वह ब्रांड नहीं चाहिए. मैं फ्री रहना चाहता हूं ताकि मैं दैट गर्ल.. भी बना सकूं और गैंग्स ऑफ वासेपुर भी. फिर अगली और बॉम्बे वैलवेट बना सकूं. मैं सारी जिंदगी एक ही तरह की फिल्में नहीं बनाना चाहता. अगर ब्रांडिंग का मतलब है कि यह मालूम नहीं कि ये इंसान अगली फिल्म क्या बनाएगा, तो मैं उस ब्रांडिंग से खुश हूं.



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