Monday, February 16, 2009

मैं कल्याणी जैसी नहीं हूं: सुरेखा सिकरी

बालिका वधु की परंपरावादी और रूढि़वादी विचारों वाली कल्याणी दादी का गुस्सा जब फूटता है तो मासूम आनंदी, जगदीश एवं गहना के साथ ही, टीवी से चिपक कर बैठे हजारों दर्शक भी सहम जाते हैं। चंद मिनट बाद वही कल्याणी दादी जब मुस्कुराती है तो सबके चेहरे पर भी हल्की सी मुस्कान दौड़ जाती है। यह असर देसी लिबास में सजी-धजी छोटे पर्दे की कल्याणी दादी का है। सुरेखा को गोविंद निहलानी की तमस और श्याम बेनेगल की फिल्म मम्मो में सराहनीय अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
बालिका वधु साइन करते समय क्या आपको अनुमान था कि यह सीरियल इस कदर लोकप्रिय होगा?
मुझे नहीं लगा था कि बालिका वधु इतना बड़ा हिट साबित होगा। मेरे पास जब सीरियल का प्रस्ताव आया और मैंने कल्याणी की भूमिका के बारे में सुना तो मुझे यह अलग और दमदार लगी। मैंने अपने लंबे करियर में निगेटिव भूमिका नहीं की थी। सो, मैंने हां कह दिया।
कल्याणी दादी की भूमिका निभाना कैसा लग रहा है?
मैंने अपने जीवन में अब तक ऐसी महिला नहीं देखी। कल्याणी देहाती है। उसकी सोच, बातचीत, पहनावा-ओढ़ावा, बैठने-उठने का तरीका अलग है। मैं कल्याणी को कल्पना के आधार पर जी रही हूं। सच कहूं तो मुझे इस भूमिका के लिए कोई तैयारी नहीं करनी पड़ती। सब अपने आप हो जाता है। अब लोग मिलते हैं तो कहते हैं कि आपके जैसी यानी कल्याणी जैसी मेरी नानी, दादी और सास हैं। ये सुनकर मुझे खुशी होती है। साथ ही डर भी लगता है कि मेरी भूमिका का किसी पर निगेटिव असर न पड़ जाए। मैं चाहूंगी कि लोग कल्याणी से अच्छी बातें सीखें।
क्या कल्याणी की तरह आप भी परंपरावादी सोच रखती हैं?
मैं कल्याणी जैसी नहीं हूं। मैं रीयल लाइफ में सीधी-सादी एक मामूली महिला हूं। हां, मुझे कल्याणी की कुछ बातें पसंद हैं और मैं उनसे निजी जीवन में सरोकार रखती हूं। मैं मानती हूं कि बच्चों को टीवी अधिक नहीं देखना चाहिए, उन्हें अपनी सेहत का ख्याल रखना चाहिए और खूब खाना-पीना चाहिए। लड़कियों को घर के काम अच्छी तरह सीखने चाहिए। आज की लड़कियां करियर को ज्यादा महत्व देती हैं। वे घर का काम-काज नहीं सीखती हैं। यदि वे ये सब काम सीखेंगी तो उन्हीं का लाभ होगा।
2005 में आयी फिल्म जो बोले सो निहाल के बाद आप बड़े पर्दे पर नहीं दिखीं। क्या वजह है?
मैंने हॉलीवुड की फिल्म फैमिली पोर्टेट साइन की थी। पता नहीं क्यों वह फिल्म रिलीज नहीं हुई। उसके बाद अच्छी भूमिकाओं के प्रस्ताव ही नहीं मिले। मैं टीवी में व्यस्त हो गयी। अब बालिका वधु की लोकप्रियता के बाद मुझे अच्छी फिल्मों के प्रस्ताव मिल रहे हैं। लेकिन इस वक्त मैं कोई फिल्म नहीं कर सकती, क्योंकि मैं एक समय में एक ही काम करना पसंद करती हूं।
आपके निजी जीवन के बारे में जानना चाहेंगे। यहां तक का सफर कैसे तय किया?
मेरा बचपन उत्तर भारत के कुमायूं में बीता। कुछ दिनों तक मैं अलीगढ़ में रही। अट्ठारह वर्ष की उम्र में दिल्ली आ गयी। 1968 में मैंने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से ग्रेजुएशन पूरा किया। दस वर्षो तक वहीं थिएटर में व्यस्त रही। मेरे काम की सराहना हुई तो टीवी और फिल्मों में काम करने के प्रस्ताव मिलने लगे। 1987 में मैं मुंबई आ गयी। यहां आने के बाद थिएटर से रिश्ता टूट गया। खुशकिस्मत रही, शुरुआती दिनों में ही गोविंद निहलानी और श्याम बेनेगल जैसे फिल्मकारों के साथ काम करने का मौका मिला। मेरा अब तक का सफर अच्छा रहा है।
थिएटर को मिस करती हैं? नए कलाकारों के लिए ट्रेनिंग कितनी आवश्यक है?
थिएटर का अनुभव मुझे टीवी एवं फिल्म में बहुत काम आया। थिएटर में काम करने के बाद कलाकार मंझ जाता है। उसे कहानी, भूमिका और अभिनय की समझ आ जाती है। टीवी में फटाफट शॉट देना पड़ता है। यहां रिहर्सल के लिए वक्त नहीं मिलता। थिएटर पृष्ठभूमि की होने की वजह से मैं अपने डायलॉग और सीन याद रख पाती हूं। मेरे मुताबिक ट्रेनिंग लेनी चाहिए। वहां आपको टेक्नीक सिखायी जाती है। मैं तो आज भी सीख रही हूं, बालिका वधु के अपने नन्हें कलाकार आनंदी और जगदीश से।
-रघुवेंद्र सिंह

1 comment:

संगीता पुरी said...

सुरेखा सिकरी जी से मिलवाने का बहुत बहुत धन्‍यवाद.....अच्‍छी लगी उनकी बातें।